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न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Updated Tue, 01 May 2018 12:13 PM IST
सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ में निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा ली जाने वाली शपथ का मुद्दा पहुंचा है लेकिन इस मुद्दे पर जजों के बीच मतभेद है कि एक चुना हुआ सदस्य बिना शपथ लिए अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर सकता है या नहीं।
दरअसल मामला उत्तर प्रदेश की ग्राम पंचायत से जुड़ा हुआ है। यहां सरपंच के चुनाव के एक साल बाद बाकी सदस्यों द्वारा अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। इस मामले में आरोप लगाया गया था कि जो सदस्य अविश्वास प्रस्ताव लाये थे उनमें से 13 लोगों ने पंचायत सदस्य के रूप में शपथ नहीं ली थी लेकिन उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिये। इसके बाद अदालत में याचिका दायर कर पूछा गया कि जिन लोगों ने पंचायत सदस्य के रूप में शपथ नहीं ली क्या वो अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर सकते हैं और क्या वो वैद्य सदस्य हैं।
जस्टिस मदन बी लोकुर और दीपक गुप्ता के बीच इस मामले में अलग राय है। जस्टिस लोकुर ने इस मामले में 34 साल पुराने 1984 के मामले का हवाला दिया जिसमें एक MLA जिसने शपथ नहीं ली थी और उसने एक शख्स का नाम राज्यसभा के लिए प्रस्तावित किया था। इस मामले में एससी ने कहा था कि अगर चुनाव आयोग एक बार किसी शख्स के निर्वाचित होने का नोटीफिकेशन जारी कर देती है तो वह राज्यसभा में जाने के लिए किसी शख्स का प्रस्तावक बन सकता है। इसी तरह गांव के सरपंच के खिलाफ लाये गए अविश्वास प्रस्ताव में जिन लोगों ने बिना शपथ लिए हस्ताक्षर किये हैं, उनको यह करने का पूरा अधिकार है।
वहीं जस्टिस गुप्ता का कहना है कि जस्टिस लोकुर द्वारा दिया गया तर्क सही नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर कोई सदस्य शपथ नहीं लेता तो फिर क्या महत्व है इसका? शपथ न लेने से वह सदस्य बनना बंद नहीं हो जाते लेकिन वह सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले सकते। इसलिए पंचायत चुनाव मामले में जिन लोगों ने शपथ नहीं ली है वह अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने का अधिकार नहीं रखते।
हालांकि जस्टिस लोकुर और गुप्ता ने कहा कि विधानमंडल को यह अनिवार्य कर देना चाहिए कि पंचायत सदस्य निश्चित समय में शपथ जरूर लें।
सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ में निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा ली जाने वाली शपथ का मुद्दा पहुंचा है लेकिन इस मुद्दे पर जजों के बीच मतभेद है कि एक चुना हुआ सदस्य बिना शपथ लिए अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर सकता है या नहीं।
दरअसल मामला उत्तर प्रदेश की ग्राम पंचायत से जुड़ा हुआ है। यहां सरपंच के चुनाव के एक साल बाद बाकी सदस्यों द्वारा अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। इस मामले में आरोप लगाया गया था कि जो सदस्य अविश्वास प्रस्ताव लाये थे उनमें से 13 लोगों ने पंचायत सदस्य के रूप में शपथ नहीं ली थी लेकिन उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिये। इसके बाद अदालत में याचिका दायर कर पूछा गया कि जिन लोगों ने पंचायत सदस्य के रूप में शपथ नहीं ली क्या वो अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर सकते हैं और क्या वो वैद्य सदस्य हैं।
जस्टिस मदन बी लोकुर और दीपक गुप्ता के बीच इस मामले में अलग राय है। जस्टिस लोकुर ने इस मामले में 34 साल पुराने 1984 के मामले का हवाला दिया जिसमें एक MLA जिसने शपथ नहीं ली थी और उसने एक शख्स का नाम राज्यसभा के लिए प्रस्तावित किया था। इस मामले में एससी ने कहा था कि अगर चुनाव आयोग एक बार किसी शख्स के निर्वाचित होने का नोटीफिकेशन जारी कर देती है तो वह राज्यसभा में जाने के लिए किसी शख्स का प्रस्तावक बन सकता है। इसी तरह गांव के सरपंच के खिलाफ लाये गए अविश्वास प्रस्ताव में जिन लोगों ने बिना शपथ लिए हस्ताक्षर किये हैं, उनको यह करने का पूरा अधिकार है।
वहीं जस्टिस गुप्ता का कहना है कि जस्टिस लोकुर द्वारा दिया गया तर्क सही नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर कोई सदस्य शपथ नहीं लेता तो फिर क्या महत्व है इसका? शपथ न लेने से वह सदस्य बनना बंद नहीं हो जाते लेकिन वह सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले सकते। इसलिए पंचायत चुनाव मामले में जिन लोगों ने शपथ नहीं ली है वह अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने का अधिकार नहीं रखते।
हालांकि जस्टिस लोकुर और गुप्ता ने कहा कि विधानमंडल को यह अनिवार्य कर देना चाहिए कि पंचायत सदस्य निश्चित समय में शपथ जरूर लें।
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